Garbhasth shishu ko bachate hain Genetic test
हर दम्पती अपने होने वाली संतान को बीमारी से बचाने को लेकर चिंतित रहता है। यह चिंता तब अधिक गंभीर हो जाती है जब दम्पती को ही कोई जेनेटिक समस्या हो। गर्भ धारण से पहले या गर्भधारण के दौरान कुछ बातों का ध्यान रखकर इससे बचा जा सकता है। जीन एनालिसिस से खराब जींस को अगली पीढ़ी में जाने से रोका जा सकता है।
गुणसूत्रों का शिशुओं पर असर
मानव शरीर में करोड़ों सेल्स और 46 (23 जोड़े) क्रोमोसोम (गुणसूत्र) होते हैं जबकि स्पर्म या ओवम में सिर्फ 23 क्रोमोसोम ही होते हैं। जब फर्टिलाइजेशन होता है तो दोनों के मिलन से जो एम्ब्रियो (भ्रूण) बनता है उसमें ४६ क्रोमोजोम हो जाते हैं। क्रोमोसोम्स ही शरीर के गुण-अवगुण को आगे की पीढ़ी में पहुंचाते हैं। ये क्रोमोसोम, डीएनए, आरएनए और प्रोटीन्स से बने होते हैं। आमतौर पर शरीर के डीएनए व आरएनए में कई जींस मिले होते हैं। एक क्रोमोसोम पर कई जींस हो सकते हैं। इनका ही असर पैदा होने वाले शिशु पर पड़ता है।
आनुवांशिक बीमारियां
शरीर के जींस में किसी भी तरह की गड़बड़ी से जेनेटिक (आनुवांशिक) बीमारियां होती हैं। जींस में खराबी से थैलेसीमिया, हीमोफीलिया, डाउन सिंड्रोम और कई प्रकार के कैंसर भी होते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं। युवा अवस्था में होने वाले ब्रेस्ट कैंसर, गर्भाशय का कैंसर और किडनी का कैंसर मुख्य हैं जो अगली पीढ़ी तक जाते हैं। इसकी जांच के लिए क्रोमोसोमल माइक्रो एरेय, पीसीआर और फिश टेस्ट किए जाते हैं।
इनमें अधिक आशंका
यदि कोई बीमारी माता और पिता दोनों के परिवार में चली आ रही है तो उस परिवार के बच्चे को वह बीमारी होने का खतरा 100 फीसदी तक रहता है। लेकिन मां या पिता किसी एक को है तो बीमारी की आशंका 50 फीसदी तक रहती है।
जेनेटिक डिजीज के कारण
क्रोमोसोम्स में गड़बड़ी से इनकी संख्या कम-ज्यादा हो जाती है। डाउन सिंड्रोम (जब 21वां क्रोमोसोम अतिरिक्त जुड़ जाए यानी 46 की जगह 47 हो जाए ), टर्नर सिंड्रोम (जब एक्स क्रोमोसोम कम हो जाए, कुल 45 ही रहे)। कई बार क्रोमोसोम का कोई हिस्सा न हो तो भी समस्याएं होती हैं। वहीं सिंगल जीन डिसऑर्डर से सिस्टिक फाइब्रोसिस, सिक्ल सेल एनीमिया या हीमोफीलिया होता है जबकि कई जींस में परेशानी से ब्रेन या स्पाइन की समस्या होती है।
गर्भधारण से पहले प्लानिंग
बेबी प्लान कर रहे हैं तो डॉक्टर से मिलकर संभावित परेशानी के बारे में चर्चा करें। डॉक्टरी सलाह पर दो माह पहले से ही फोलिक एसिड लें। इससे कई बीमारियों से बचाव होता है। यदि पुरुष को गंभीर बीमारी है तो स्पर्म बैंक से स्वस्थ स्पर्म भी ले सकते हैं ताकि बीमारी दूसरी पीढ़ी में न जाए।
क्या है पीजीडी?
भ्रूण को यूट्रस में ट्रांसफर करने से पहले यदि पीजीडी टेस्ट करवाते हैं तो बच्चे में किसी वंशानुगत दोष जैसे सिस्टिक फाइब्रोसिस, मेटाबोलिक सिंड्रोम, थैलेसीमिया जैसी बीमारी की गुंजाइश नहीं रहती है। इस तकनीक में वे भ्रूण निकाल लिए जाते हैं जो दोषपूर्ण हैं। पिता व मां के अंशों को मिलाने के बाद भ्रूण की स्क्रीनिंग होती है। अंशों के मिलान के बाद जो भ्रूण बनता है उसमें से हैल्दी (जिनमें जेनेटिक दोष न हो) को प्रत्यारोपण के लिए लेते हैं।
पीजीएस तकनीक क्या है?
बच्चे में जन्मजात दोष, स्वत: गर्भपात, जुड़वां या दो से ज्यादा बच्चे न हो इसके लिए पीजीएस तकनीक की सहायता लेते हैं। भ्रूण के ट्रांसफर से पहले उसकी स्क्रीनिंग की जाती है। इससे विकृत भ्रूण का पता चलता है। इस तकनीक में वह भ्रूण चुनते हैं जिसमें गुणसूत्रों की संख्या सही होती है। इससे गर्भधारण की दिक्कत भी दूर की जा सकती है।
इनसे भी असर पड़ता है
सिर्फ पिता के परिवार में होने वाली बीमारियां ही आने वाली पीढ़ी में ट्रासंफर नहीं होती है बल्कि मां के परिवार की बीमारियां भी फैलती हैं। पिता की ओर के रिश्तेदार जैसे बाबा, दादी, चाचा, ताऊ और बुआ और इस रिश्ते में आने वाले भाई-बहन। मां के परिवार के रिश्तेदारों में नाना-नानी, मौसी और मामा, ममेरे भाई-बहन को समस्या है तो हो सकती है।
आइवीएफ में जांचें
ऐसे में आइवीएफ (कृत्रिम प्रजनन ) से संबंधित दो तकनीकें प्रयोग की जाती हैं। पहली पीजीडी (प्री इम्प्लांटेशन जेनेटिक डायग्नोसिस) है जो वंशानुगत बीमारी से ग्रस्त दम्पती के बच्चे को उस विकार से बचाती है। दूसरी तकनीक पीजीएस (प्राइम प्लांटेशन जेनेटिक स्क्रीनिंग) है। इसके माध्यम से यदि एम्ब्रियो में दोष है तो स्क्रीनिंग कर बच्चे में उसे जाने से रोका जा सकता है। गर्भधारण से पहले और गर्भधारण के बाद भी कुछ जांचें की जाती हैं।
ऐसे करें बचाव
यदि जेनेटिक डिजीज की आशंका है तो शादी से पहले लड़का-लड़की की हैल्थ टेस्ट करवाएं। विकसित देशों में शादी से पहले ऐसी जांचें होती हैं। शादी के बाद भी परिवार में बीमारियों के बारे में पता करें। जेनेटिक बीमारी होने के बाद उससे बचाव करना मुश्किल है लेकिन बच्चे के पैदा होने के पहले बचाव के उपाय करें। आइवीएफ तकनीक की मदद से जेनेटिक बीमारियोंं को दूसरी पीढ़ी में जाने से रोका जा सकता है। यदि महिला सामान्य रूप से गर्भ धारण नहीं कर पाती है तो आइवीएफ से गर्भधारण कर थैलेसीमिया, बार-बार गर्भपात, सिस्टिक फाइब्रोसिस, डाउन सिंड्रोम, हीमोफीलिया और मंगोलिज्म से बचाव संभव है।
डॉ. अशोक गुप्ता, अधीक्षक, जे.के. लोन हॉस्पिटल, जयपुर
नितिज मोरदिया, चीफ एंब्रियोलॉजिस्ट, इंदिरा आइवीएफ, उदयपुर
गर्भस्थ शिशु को बचाते हैं जेनेटिक टेस्ट Garbhasth shishu ko bachate hain Genetic test
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December 10, 2018
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